निर्मल गगन रुपहला चंदा बिखर गये है घन, शरद पूर्णिमा बिहस रही है, मुग्ध हुआ है मन

निर्मल गगन रुपहला चंदा बिखर गये है घन, शरद पूर्णिमा बिहस रही है, मुग्ध हुआ है मन


महमहाती गीतिकाए 

छन्दबद्ध कविता के कुशल शिल्पी कैलाश नाथ मिश्र जी की भाव भरी और शिल्प सधी गीतिकाओं का संग्रह 'महमहाती गीतिकाएं' हिंदी कविता के लिए एक अप्रतिम अवदान है..... यह कथन प्रख्यात छन्दशास्त्री गीतिका विधा के प्रवर्तक आचार्य ओम नीरव जी ने कहा है तो सच ही कहा होगा।

         व्यवसाय से चिकित्सक डॉ कैलाश नाथ मिश्र जीवन को जीवंत बनाने हेतु आधुनिक काव्य रचना जगत से विलुप्त हो रही सनातनी छंद शास्त्रीय विधा को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है जो कि वर्तमान रचनाकारों के लिए अनुकरणीय उदाहरण है। कविता लोक में डाॅ कैलाश नाथ मिश्र की गीतिकाएं प्रेरणादाई छाप छोड़ने में सक्षम है।

एक गीतिका देखिए 

निर्मल गगन रुपहला चंदा बिखर गये है घन,

शरद पूर्णिमा बिहस रही है, मुग्ध हुआ है मन।

उपवन में चंद्रिका थिरकती हर श्रृंगार खिले,

झिलमिल-झिलमिल छवि विटपों पर, करती है नर्तन।

शीतल छुवन लिए आती है, संध्या नम होकर,

मौसम ने संदेश दिया है, यह ऋतु की सिहरन।

फसलें पकी धान की सुंदर, रंग लगे मनहर,

छिड़क गया हो जैसे कोई, पिघलाया कंचन।

अर्ध निशा में नींद अनमनी, स्वप्न हुए बेघर,

लगा टकटकी नयन विवश हो, ताकें वातायन।

डॉ कैलाश नाथ मिश्र 

संपर्क - 9452702797


             सौजन्य - कवि संगम त्रिपाठी

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