मेरी मटकी में कंकरिया मारी, अब झुकाऊं या नजरें मिलाऊं, रूठा है तुझको कैसे मनाऊ

मेरी मटकी में कंकरिया मारी, अब झुकाऊं या नजरें मिलाऊं, रूठा है तुझको कैसे मनाऊ



 *रूठा है कैसे मनाऊं*

                   

रूठा है तुझको कैसे मनाऊं,

अपने कान्हा को कैसे रिझाऊं।


मेरी मटकी में कंकरिया मारी,

कोरा मन भीगा,भीगी मैं सारी।

अब झुकाऊं या नजरें मिलाऊं,

रूठा है तुझको कैसे मनाऊं ।


प्रीति है मेरी सदियों पुरानी,

तेरी बंशी की हूं मैं दीवानी।

दूर जाऊं या मैं पास आऊं,

अपने कान्हा को कैसे रिझाऊं।


मैंने जी भर के खुद को सजाया,

गोरे पैरों में महावर रचाया ।

तेरी घुंघराले जुल्फें सजाऊं,

रूठा है तुझको कैसे मनाऊं।


गोपियों की निगाहें छुरी सी,

लग न जाए नजरिया किसी की ।

अपने काजल से टीका लगाऊं,

रूठा है तुझको कैसे मनाऊं।


तेरे बिन दिल ये लगता नहीं हैं,

मेरा दिल मेरे बस में नहीं है ।

दिल लगाऊं या दिल को चुराऊं,

रूठा है तुझको कैसे मनाऊं।

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 गीतकार -

 अनिल भारद्वाज, एडवोकेट, हाईकोर्ट ग्वालियर

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