*सूरज की सगी बहन*
आग उगलती दोपहरी ये अंगारे सा दिन,
कब आषाढ़ घन गरजेंगे कब बरसेगा सावन।
प्यासे अधर नदी झरनों के,
कंठ कुओं के सूखे,
दिन भर के दुबके नीड़ों में,
पंछी सोऐं भूखे।
प्रातः से ही तपन तपस्विन करने लगी हवन,
कब मेघों का बिजुरियों से होगा मधुर मिलन।
सड़कों पर सन्नाटा लेटा,
मृग मरीचिका बनकर,
गर्म हवा के झोंके चलते,
रात-रात भर तन कर।
भीषण गर्मी लगती है सूरज की सगी बहन,
कब रिमझिम के गीत गुनगुनाएंगे धरा गगन।
रखा निर्जला व्रत इस ऋतु ने,
पांव छांव के व्याकुल,
श्वेत अंगोछा बांधे सिर पर,
हांफ रहा मलयानिल।
पंखा झलती पल्लू के कोने से सांझ दुल्हन,
उमस खोल कर बैठी वक्षस्थल के सब बंधन।
आग उगलताती दोपहरी ये अंगारे सा दिन,
कब आषाढ़ घन गरजेंगे कब बरसेगा सावन।
---------------***********--------------
गीतकार अनिल भारद्वाज, एडवोकेट,(हाई कोर्ट, ग्वालियर),