गीत ये बन पाए हैं, जिगर को चीर के, बाहर ये निकाले मैंने, फिर ये अरमान

गीत ये बन पाए हैं, जिगर को चीर के, बाहर ये निकाले मैंने, फिर ये अरमान



*गीत ये बन पाए हैं*   जिगर को चीर के ,

बाहर ये निकाले मैंने ,

फिर ये अरमान ,

आंसुओं में उबाले मैंने ,

तब कहीं जा के ,

विरह गीत ये बन पाए हैं ।


इनके सीने में गम ,

के तीर चुभाये मैंने ,

दिल पै अपनों के दिये ,

जख्म दिखाए मैंने ,

तब कहीं जा के ,

विरह गीत ये बन पाए हैं।


स्वरों की सेज पै ,

जी भर ये सजाये मैंने,

लय के तारों पै ,

नंगे पांव चलाए मैंने ,

तब कहीं जाके ,

विरह गीत ये बन पाए हैं !


गीतकार- अनिल भारद्वाज एडवोकेट हाईकोर्ट ग्वालियर

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