कौन चाहता है अनूपपुर में मेडिकल-इंजीनियरिंग कॉलेज न खुलें
*दस साल से स्वीकृत हैं मेडिकल व इंजीनियरिंग कॉलेज,अपनों के षडयंत्रों का हुआ शिकार हुआ शहर*
(कैलाश पाण्डेय की कलम से)
अनूपपुर। हाल ही जब मध्य प्रदेश सरकार ने छ:जिलों को मेडिकल कॉलेज की सौगात दी तो अनूपपुर के लोगों ने सहज ही प्रश्न उठाया कि आखिर इस जिले को क्यों भुला दिया। मामले की तह तक गये तो पता चला कि अनूपपुर में न केवल मेडिकल बल्कि इंजीनियरिंग कॉलेज भी स्वीकृत है,लेकिन अपनों के षडयंत्रों का शिकार अनूपपुर विकास का मोहताज बना हुआ है। श्रेय और खोखले अहंकार की राजनीति करने वालों ने अपनी हठधर्मिता के लिये शहर हित को भी दांव पर लगा दिया। लेकिन, आने वाले चुनावों में जनता याद रखेगी।
*क्या हुआ,कैसे हुआ*
अमरकंटक में स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय के अंतर्गत अनूपपुर में दस साल पहले मेडिकल व इंजीनियरिंग कॉलेज स्वीकृत हैं। ये दोनों सौगातें भी बड़ी मुश्किल से प्राप्त हुई थीं,परंतु आज तक इन संस्थानों की नींव का पत्थर भी नहीं रखा जा सका। इन सौगातों को पाने के लिये कई बार पत्राचार किया गया। सोचने वाली बात है कि जिसे पाने के लिये अथाह मेहनत की गयी,उसे स्थापित करने में घनघोर लापरवाही कैसे हुई, ये दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है।
*साजिश कैसे हुई*
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विवि के कुलपति ने इन संस्थानों की स्थापना के लिये जमीन की मांग की। जिसके लिये उन्होंने हर बार पत्र लिखा मुख्यमंत्री कार्यालय को। जबकि ये पत्र कलेक्टर को लिखना था और कुलपति को अपना प्रतिनिधि भेजकर कलेक्टर से व्यक्तिगत मुलाकात कर वस्तुस्थिति से परिचित कराना था,लेकिन, कभी भी ऐसा नहीं हुआ। दफ्तरों में बैठकर खानापूर्ति के लिये कागजी घोड़े दौड़ते रहे,लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला।
*न जमीन कम है न जज्बा*
जहां तक इन संस्थानों के लिये जमीन की बात है तो अनूपपुर में जमीन की कोई कमी नहीं है और ऐसे कार्यों के लिये तो लोग निजी जमीन देने भी तैयार हो जाएंगे। विकास के लिये जज्बा जनता में बाकी है,लेकिन इस शहर की बागडोर संभालने वाले हाथ ही कमजोर पड़ गये।
*भविष्य माफ नहीं करेगा*
जिन लोगों ने अनूपपुर के साथ ये नाइंसाफी की है या इसमें सहयोग किया है, उन्हें भविष्य कभी माफ नहीं करेगा। जल्दी ही राज्य सरकार अन्य जिलों में मेडिकल कॉलेज का भूमि पूजन करेगी,लेकिन अनूपपुर तरसता रह जाएगा। उन बच्चों के बार में सोचकर ही पीड़ा होती है,जो अभी भी बाहर पढ़ने जा रहे हैं। ज्यादातर बच्चे ऐसे भी होंगे, जो मेधावी होने के बाद भी अर्थाभाव के कारण अध्ययन से वंचित हो गये होंगे। इन संस्थानों के स्थापित होने युवाओं को अपने ही शहर में रोजगार उपलब्ध हो सकते थे, जो नहीं हुआ।