आज कठघरे में अपराधी नहीं, अदालत ही खड़ी है- राष्ट्रीय युवा संगठन
आजादी के अमृत महोत्सव का सबसे काला व ग्लानि भरा दिन, 15 अगस्त को लालकिला पर प्रधानमंत्री के तिरंगा फहराने के अगले ही दिन, 16 अगस्त को सामने आया. बलात्कार व हत्या के अपराधियों की रिहाई के स्वागत समारोह का फोटो इसी दिन देश के सभी अखबारों में प्रकाशित हुआ. यह खबर अौर भी वीभत्स व पीड़ादायक हो गई जब हमने देखा कि इस पूरे प्रसंग पर न प्रधानमंत्री कुछ बोले, न शासक पार्टी की ही कोई प्रतिक्रिया सामने आई. लगता है, उनके पास जो कुछ भी अर्थहीन बोलने को था, वह सब लालकिला पहले ही सुन चुका था।
घटना 2002 के गुजरात दंगों से जुड़ी है. सांप्रदायिकता की उस गुजरात-व्यापी आग में जब सब कुछ लूटा-जलाया, मारा-काटा जा रहा था तब हिंदुओं की एक उन्मादी भीड़ ने मुस्लिम किशोरी बिल्कीस बानो तथा उसके परिवार को घेर लिया. 12 हिंदुओं ने गर्भवती बिल्कीस का सामूहिक बलात्कार किया, उसकी 3 साल की बेटी की जमीन पर पटक कर, उसकी नृशंस हत्या कर दी तथा परिवार के 14 लोगों को भी मार डाला. गोधरा के रिलीफ कैंप में बिल्कीस का बयान दर्ज हुआ. पुलिस-प्रशासन की पूरी कोशिश थी कि किसी तरह मामला दबा दिया जाए लेकिन बिल्कीस व परिवार की दृढ़ता व अदालत के सख्त रवैये के कारण यह न हो सका. पुलिस ने तो पड़ताल बंद करने की रिपोर्ट भी दे दी थी और मजिस्ट्रेट ने उसे स्वीकार भी लिया था लेकिन अदालत ने मामला बंद न करने का निर्देश दिया और फिर सर्वोच्च न्यायालय ने मामला सीबीआई को सौंपने का निर्देश दे दिया।
2004 में अदालत का निर्देश आया कि इस मामले की सुनवाई गुजरात के बाहर होगी. यह संभवत: पहला ही ऐसा सार्वजनिक मामला है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य की अपनी अदालती व्यवस्था पर भरोसा न रखकर, यह निर्देश दिया कि पूरी कानूनी प्रक्रिया गुजरात के बाहर चलाई जाए. 21 जनवरी 2008 को सीबीआई के विशेष जज यू.डी. साल्वी ने 13 अपराधियों में से 11 को अजीवन कैद की सजा सुनाई. अपराधियों ने इसके खिलाफ मुंबई हाईकोर्ट में अपील की जो तत्काल ही खारिज कर दी गई. फिर वे सुप्रीम कोर्ट पहुंचे जिसने भी 2017 में उनकी अपील खारिज कर दी. 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को निर्देश दिया कि वह बिल्कीस बानो को 50 लाख रुपयों का मुआवजा, रहने का घर व सरकारी नौकरी दे।
इस तरह सारे कानूनी प्रावधानों को दरवाजा खटखटाने और विफल हो जाने के बाद से ये अपराधी आजीवन कैद की सजा काट रहे थे. फिर अचानक 15 अगस्त को उन सबकी रिहाई कैसे हुई; और इसकी प्रक्रिया कैसे चली ? सुप्रीम कोर्ट, मुंबई हाईकोर्ट तथा गुजरात हाईकोर्ट को इसका जवाब देश को देना चाहिए. अदालती प्रक्रियाएं संविधान से बंधी होती हैं, होनी चाहिए. यह किसी जज या किसी अदालत का निजी मामला नहीं है. जो मुकदमा ऐसा नाजुक था कि गुजरात की न्याय-व्यवस्था की तटस्थता पर सुप्रीम कोर्ट ने भरोसा नहीं किया था और मुंबई हाईकोर्ट को वह मामला हाथ में लेना पड़ा था, वह मामला 14 सालों में इतना सामान्य हो गया कि सुप्रीम कोर्ट ने उसे गुजरात हाईकोर्ट को सौंप दिया ? क्या सुप्रीम कोर्ट ने बिल्कीस बानो व उनके वकील को सूचना दी कि वह मामले को गुजरात हाईकोर्ट को सौंप रही है ? उसने गुजरात हाईकोर्ट को निर्देश दिया कि रिहाई का जो आवेदन कैदियों ने किया है, उसकी सुनवाई में बिल्कीस बानो व उनके वकील को भी शरीक किया जाए व पूरा मुकदमा सुना जाए ? यदि ‘हां’ तो वह सारा तथ्य देश के सामने रखा जाए; यदि ‘नहीं’ तो उसका विधानसम्मत कारण बताया जाए।
अब कठघरे में अपराधी नहीं, अदालत ही खड़ी है*
हम महात्मा गांधी के इस कथन में पूरा विश्वास रखते हैं कि अपराध से घृणा करना चाहिए, अपराधी से नहीं. लेकिन महात्मा गांधी ही यह भी बताते हैं कि अपराधी का ह्रदय परिवर्तन ही उसके अपराध की माफी का आधार बन सकता है. क्या सुप्रीम कोर्ट विधानपूर्वक व विश्वासपूर्वक देश से यह कह सकता है कि आज देश में 2002 की तुलना में सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ा है और बिल्कीस के अपराधी प्रायश्चित भरे मन से क्षमा चाह रहे हैं ? इसलिए हमने कहा कि अपराधी नहीं, आज अदालत स्वंय कठघरे में खड़ी है।
हम कहना चाहते हैं कि इस रिहाई से न्याय का मजाक उड़ाया गया है, न्यायपालिका की नियत पर संदेह घिर आया है, बिल्कीस के बलात्कार को हादसा बनाने की कोशिश हुई है. प्रधानमंत्री ने नारी के सम्मान आदि की जो बात 15 अगस्त को लालकिले से कही थी संभव है, वह उनके अखंड जुमला कोष का हिस्सा हो लेकिन क्या अदालत भी अब वैसे ही कोष के सहारे न्याय-व्यवस्था चलाना चाहती है ? जिन लोगों ने, महिलाओं ने रिहा बलात्कारियों को चंदन-टीका किया, मिठाई खिलाई वे सब बलात्कारियों का घृण्य अपराध नहीं, उसकी जाति व धर्म देख रहे थे. क्या हम भी वही देखेंगे ? अगर आप गर्व से ‘हां’ कहते हैं तो आप जान लीजिए कि वह बलात्कारी हमारे-आपके घर में ही रहता है; और हमारी मां-बहनें भी उसी घर में, उसके साथ ही रहती हैं. बलात्कार मानसिक बीमारी है और बीमार की जगह अस्पताल या जेल में होती है।
स्वतंत्रता दिवस पर अदालत की तरफ से मिला यह उपहार हमारे लोकतंत्र की जड़ पर किया गया एक गहरा प्रहार है।
द्वारा- राष्ट्रीय युवा संगठन