पुत्र की खुशहाली के लिए माताओं ने रखा संतान सप्तमी ब्रत और विधि विधान से की पूजा
अनूपपुर
अनूपपुर मुख्यालय समेत पूरे जिले में संतान सप्तमी का का ब्रत महिलाओं ने रखकर विधिवत पूजा,अर्चना करके धूमधाम से मनाया गया यह ब्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को संतान सप्तमी व्रत रखा जाता है। इस साल संतान सप्तमी व्रत 13 सितंबर, सोमवार को पड़ा इस दिन भगवान शिव और माता पार्वती की विधि-विधान से पूजा की जाती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस व्रत को विशेष रूप से संतान प्राप्ति व उसकी खुशहाली के लिए रखा जाता है। सबसे पहले सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि करके इसके बाद स्वच्छ कपड़े धारण करके भगवान शिव की विधि-विधान से पूजा अर्चना करके इसके बाद व्रत का संकल्प किया और उसके बाद इस दौरान महिलाओं ने निराहार रहकर पूजा का प्रसाद प्रसाद तैयार किया प्रसाद के लिए खीर-पूरी व गुड़ के 7 पुए या 7 मीठी पूरी तैयार करके पूरे विधि विधान से सबसे पहले भगवान शिव और माता पार्वती की प्रतिमा लगाकर, नारियल के पत्तों के साथ कलश स्थापित करके इसके बाद दीपक जलाकर आरती की थाली में हल्दी, चंदन, कुमकुम, फूल, कलावा, अक्षत और भोग आदि सामग्री रखकर फिर चांदी की चूड़ी जरूर पहनकर इसके बाद भगवान को भोग लगाकर पूजन में मीठी पूरी चढ़ाकर संतान की रक्षा और उसकी खुशहाली की कामना करते हुए दोपहर में भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा करके उसके बाद कथा सुनकर ब्रत पूर्ण किया।
*ये है मान्यताएं*
पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन काल में नहुष अयोध्यापुरी का प्रतापी राजा था। उसकी पत्नी का नाम चंद्रमुखी था। उसके राज्य में ही विष्णुदत्त नामक एक ब्राह्मण रहता था, जिसकी पत्नी का नाम रूपवती था। रानी चंद्रमुखी और रूपवती में परस्पर घनिष्ठ प्रेम था एक दिन वे दोनों सरयू में स्नान करने गईं। जहां अन्य स्त्रियां भी स्नान कर रही थीं।
उन स्त्रियों ने वहीं पार्वती-शिव की प्रतिमा बनाकर विधिपूर्वक उनका पूजन किया, तब रानी चंद्रमुखी और रूपवती द्वारा उन स्त्रियों से पूजन का नाम तथा विधि के बारे में पूछने पर एक स्त्री ने बताते हुए कहा कि यह संतान देने व्रत वाला है। इस व्रत की बारे में सुनकर रानी चंद्रमुखी और रूपवती ने भी इस व्रत को जीवन-पर्यन्त करने का संकल्प किया और शिवजी के नाम का डोरा बांध लिया। लेकिन घर पहुंचने पर वे अपने संकल्प को भूल गईं। जिसके कारण मृत्यु के पश्चात रानी वानरी और ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुईं।
कालांतर में दोनों पशु योनि छोड़कर पुनः मनुष्य योनि में आईं। चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी और रूपवती ने फिर एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया। इस जन्म में ईश्वरी नाम से रानी और भूषणा नाम से ब्राह्मणी जानी गईं। राजपुरोहित अग्निमुखी के साथ भूषणा का विवाह हुआ। उन दोनों में इस जन्म में भी बड़ा प्रेम हो गया।
पूर्व जन्म में व्रत भूलने के कारण इस जन्म में भी रानी की कोई संतान नहीं हुई। जबकि व्रत को भूषणा ने अब भी याद रखा था जिसके कारण उसने सुन्दर और स्वस्थ आठ पुत्रों ने जन्म दिया। संतान नहीं होने से दुखी रानी ईश्वरी से एक दिन भूषणा उससे मिलने गई। इस पर रानी के मन में भूषणा को लेकर ईर्ष्या पैदा हो गई और उसने उसके बच्चों को मारने का प्रयास किया। परंतु वह बालकों का बाल भी बांका न कर सकी।
इस पर उसने भूषणा को बुलाकर सारी बात बताईं और फिर क्षमा याचना करके उससे पूछा- आखिर तुम्हारे बच्चे मरे क्यों नहीं। भूषणा ने उसे पूर्वजन्म की बात स्मरण कराई साथ ही ये भी कहा कि उसी व्रत के प्रभाव से मेरे पुत्रों को आप चाहकर भी न मार सकीं। भूषणा के मुख से सारी बात जानने के बाद रानी ईश्वरी ने भी संतान सुख देने वाला यह व्रत विधिपूर्वक रखा, तब व्रत के प्रभाव से रानी गर्भवती हुई और एक सुंदर बालक को जन्म दिया। उसी समय से यह व्रत पुत्र-प्राप्ति के साथ ही संतान की रक्षा के लिए प्रचलित है।