एक दूसरे को भेंट की कजलियां, छोटों ने बड़ों से पाया आशीष, गले लगकर भूले गिले-शिकवे
*धूमधाम से मनाया गया कजलियां का त्यौहार, कोविड-19 के कारण उत्साह रहा फीका*
अनूपपुर/कोतमा
रक्षाबंधन के दूसरे दिन हर वर्ष कजलियां का त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता यह त्यौहार आपसी मनमुटाव, भेदभाव को मिटाकर आपसी भाई चारा मेल जोल बढ़ाकर यह त्यौहार मनाया जाता है। कजलियां का पर्व जिला मुख्यालय सहित पूरे जिले में बड़ी धूमधाम से मनाया गया, शाम को 5 बजे से शहरी इलाकों के अलावा ग्रामीण क्षेत्रो में तालाब नदी किनारे कजलियां विसर्जन करने की काफी भीड़ देखी गई विसर्जन करने में ज्यादातर महिलाएं लड़किया और छोटे छोटे बच्चे की संख्या देखने को मिली लोग अपने अपने घर से मिट्टी, प्लास्टिक, लकड़ी से बनी टोकरी को सर में रखकर गाना गाते हुए नदी तालाबो की ओर जा रहे थे और कुछ कजलियां जिस मिट्ठी में बोए जाते है उसको विसर्जित करके कजलियां लेकर अपने अपने घरो को वापस आकर अपने छोटे बड़ो से मिलकर कजलियां देकर बड़ो से आशीर्वाद लेकर दूर छोटो को आशीर्वाद देकर कजलियां पर्व मनाया गया
*कोयलांचल में भी धूमधाम से मनाया कजलियां*
कजलियों का त्योहार सोमवार को शहर सहित ग्रामीण क्षेत्रों में धूमधाम से मनाया गया। घरों में बोई गई कजलियों का शाम को विधि-विधान से पूजन अर्चन किया गया, इसके बाद उन्हें जलाशयों में विसर्जित किया गया । जल स्रतों में लोगों ने कजलियों का विचर्जन किया। कललियां देवी-देवताओं को चढ़ाने के बाद लोगों ने एक-दूसरे को भेंटकर आशीर्वाद लिया। छोटों ने बड़ों से कजलियां प्राप्त कर आशीष पाया। ग्रामीण क्षेत्रों में कजलियों का त्योहार काफी उत्साहपूर्ण माहौल में मनाया गया। इस दौरान जिन घरों के लोग किसी आपदा के कारण दुखी तो उनके घरों में बैठकर ढांढ़स बंधाया। ग्रामीण क्षेत्र में भी पर्व की धूम रही। नगर के जकीरा चौक हनुमान मंदिर से कजलिया का जुलूस निकालकर बस स्टैंड स्थित तालाब में लोगों ने कजलियां को विसर्जन किया और फिर अपने घर लौटकर एक दूसरे को भेंटकर पर्व की बधाई दी। बच्चों में कजलियों को लेकर खासा उत्साह रहा
*कब बोते हैं कजलियां*
कजलियां बोने की शुरुआत नागपंचमी के दिन से शुरू होती हैं इसी दिन लकड़ी, मिट्ठी, और अन्य पात्रों में मिट्टी भरकर उस पर गेहूं के रूप में पात्रों में बो दिया जाता है बोए हुए गेहूं में प्रतिदिन हल्का हल्का पानी और देशी खाद को डाला जाता है जिससे कजलिया बहुत अच्छे से बढ़ जाये यह प्रक्रिया 10 दिन तक लगातार जारी रहता है कजलिया को पात्रों में बो कर घर के अंदर एकांत अंधेरे वाले जगह पर रखा जाता हैं और रक्षाबंधन के अगले दिन निकालकर विसर्जित किया जाता है।
*कहा मनाया जाता है*
कजलियां का त्योहार धीरे-धीरे अपना महत्व खोता जा रहा है। लोगों की व्यस्तता ने इस त्योहार को कुछ घरों तक ही समेट दिया है। बड़े बड़े शहरो में तो यह त्यौहार नाम मात्र रह गया है ग्रामीण क्षेत्रो में अभी थोड़ी बहुत महत्व रह गया है। बुदेलखंड की लोक संस्कृति मप्र सहित उप्र के कई इलाकों के अलावा देश के कई हिस्सों में जीवंत है। ऐसी मान्यता है कि कजलियां (भुजरियां) परंपरा बुंदेलखंड के ओरछा, महोबा से करीब पांच सौ साल पूर्व शुरू हुई थी। यह पर्व पहले कभी बड़े ही उत्साह के साथ मनाया जाता था, परन्तु आधुनिकता की दौड़ में इस पर्व की रौनक फीकी पड़ती जा रही है। हालांकि कुछ ग्रामीण व कस्बाई इलाकों में इस परम्परा को अभी भी लोग जीवित किए हुए हैं।
*कजलियां देकर बुराइयों को दूर करते हैं*
श्रावण महीना लगते ही प्रकृति में हरियाली छा जाती है, कजलियां इस बात का प्रतीक है कि खेतों में हरियाली और घरों में सुख समृद्धि रहे। आपसी मनमुटाव व भेदभाव को मिटाकर मेलजोल बढ़ाने के लिए कजलियां का पर्व मनाया जाता है । इस त्योहार पर लोग कामना करते हैं कि उनके बीच संबंध हमेशा मधुर बने रहें। कजलियां की तैयारी करने के लिए पहले से महिलाएं घर में अन्न रखकर उसका पूजन करती हैं और त्योहार पर एक दूसरे को लगाकर सम्मान करतीं हैं।
*बुंदेली विरासत का अनोखा त्योहार*
कुछ लोगो का कहना है कि ऐसी किंवदंती है कि साल भर में कई बार लोगों के बीच मनमुटाव पैदा होता है, वे इस त्योहार पर एक-दूसरे को कजलियां देकर बुराइयों को दूर करते हैं। बुंदेली विरासत और रीति-रिवाजों को अपने में समेटे इस अनोखे त्योहार पर लोग एक-दूसरे से कजलियां बदलते हैं । ग्रामीण अंचलों में इसे कजलियां और भुजरियां कहा जाता है। परंपरानुसार आयु में छोटे अपने से बड़ों को कजलियां भेंट कर उनसे आशीर्वाद लेते हैं।
*कई मान्यताएं है*
कजलियां पर्व की लोग बताते हैं कि तरह तरह की मान्यताएं है पूरे वर्ष का आपसी मनमुटाव भेदभाव भुलाकर आपसी भाईचारा कायम रहे मानकर कजलियां के दिन से एक नई शुरुआत करते है, आल्हा ऊदल, की बहन पृथ्वीराज चौहान के कजलिया वाले दिन को आक्रमण को भी इस त्यौहार से जोड़कर देखा जा रहा है कुछ ग्रामीण किसान लोगो यह भी मानना है कि कजलिया का पर्व सावन की हरियाली और फसलों को जोड़कर देखा जा रहा है अगर कजलियां बहुत अच्छी होगी आने वाली फसले भी बहुत अच्छी होगी।
*कजलियां त्योहार भी रहा फीका*
नगर सहित ग्रामीण क्षेत्र के आसपास के गांव में हर साल की भांति इस साल कजलियों को गांव के मुहाने पर ताल-तालाबों में लेकर जाने की बजाय युवतियों ने अपने घर और मोहल्ले में ही इनकी पूजा-अर्चना की। साथ ही लोग बेहद गरीब और शोक संतृप्त परिवार के लोगों से मिलने ही पहुंचे। महामारी के कारण त्योहार फीका-फीका रहा।
*छोटों ने लिया बड़ों का आशीर्वाद*
रक्षाबंधन के दूसरे दिन सोमवार को उत्साह पूर्व क कजलियां का पर्व मनाया गया। शाम को तालाब, नहरों सहित जलाशयों में मेल मिलाप के पर्व की छटा देखी गई। घरों में बोए गए जवारों को महिलाएं, पुरूष, बच्चे जलाशय में विसर्जन करने पहुंचे। कजलियां पर्व के कारण नगर के विभिन्न देवालयों और मंदिरों में देवी-देवताओं को कजलियां चढ़ाने के बाद लोगों ने एक दूसरे को कजलियां भेंट की। इस अवसर पर लोगों ने कजलियों के माध्यम से बुजुर्ग एवं बड़े लोगों से आशीर्वाद प्राप्त किया। वहीं अपने हम उम्र लोगों के गले मिलकर अपनी गलतियों के लिए क्षमा याचना की। बड़े बुजुर्ग लोगों ने कजलियां लेकर आने वाले बच्चों को आशीर्वाद दिया ग्रामीण क्षेत्रों में कजलियां पर्व परंपरागत तरीके से मनाया गया। गांव की बुजुर्गो ने बताया कि भारतीय संस्कृति में कजलियां पर्व का विशेष महत्व है। इस दिन लोग कजलियों के माध्यम से अन्न को साक्षी रखकर मन के सभी मालिन्य भूलकर आपस में गले मिलते हैं। लोगों ने एक-दूसरे के घरों में पहुंचकर कजलियों का आदान-प्रदान किया।