वरिष्ठ पत्रकार महामारी के हुए शिकार नायडू जी को श्रद्धांजलि- प. अजय मिश्र

वरिष्ठ पत्रकार महामारी के हुए शिकार नायडू जी को श्रद्धांजलि- प. अजय मिश्र


अनूपपुर

 नायडू जी जैसे आप गए तो ऐसा लगा कि शरीर निष्प्राण हो गया है. छाती फटने को है और दिमाग़ जैसे सुन्न... न कुछ कह पा रहा, न ही कुछ लिखने की  हिम्मत हो रही है. जानता हूँ मृत्यु अटल है, अकाट्य है और प्रकृति में चलने वाला अनवरत क्रम है लेकिन अगर उसका आगमन असमय या अकाल हो तो दुख असहनीय हो जाता है. वही मनस्थिति खिन्न कर रही है. मगर 'बेबाक तरीके से अपनी बात कहने वाला वो पत्रकार जो किसी  से नहीं डरा, उसकी मौत की 'दस्तक' हुकूमत को सुनाई देना ज़रूरी है।

महामारी में जैसे मौत का नर्तन चौतरफ़ा है. संवेदनाएं ज़ख़्मी हैं, पूरी सरकारी व्यवस्था एक ऐसे फोड़े की तरह है, जिससे लगातार मवाद रिस रहा है. मौत के ऐसे नंगे नाच से आँखों का पानी भी सूखने लगा है और आत्मा तक कराह रही है. कभी आक्सीजन तो कभी दवाओं की कमी तो कभी आईसीयू और बेड न मिलने से तड़प-तड़प कर मरते लोग. अपनों को सामने प्राण छोड़ते देखना और संसाधनों का अभाव, व्यवस्था के कुप्रबंधन और असंवेदनशीलता के आगे खुद को बेबस चेहरे और निराशा और अवसाद से सनी उनकी पथराई प्रतिक्रिया देखने को सब अभिशप्त हैं. इस वेदना से लगभग हर परिवार या ख़ानदान गुजर रहा है।

उसी कड़ी में आपका जाना भी किसी भी सिस्टम के लिए सिर्फ एक आँकड़ा हो सकता है. सरकारों के लिए तो आप भी सिर्फ वोटरलिस्ट से हटने वाला बस एक नाम हो जाओगे. मगर आपका परिवार जो पत्नी और बेटा या ख़ानदान के रिश्तों तक ही सीमित नहीं था, आपके निधन की सूचना उसकी सहनशक्ति को कमजोर कर रही है. हमने एक तेजतर्रार पत्रकार ही नहीं बल्कि एक सरल और सहज व्यक्तित्व के धनी को खोया है।

ये सच है कि मेरा संबध न पुराना था. न ही हमने साथ बहुत समय बिताया. पेशेवर साथी होने के नाते एक दूसरे को जाना और फिर एक दूसरे से गिनती की मुलाक़ातें होने के बावजूद अपनेपन ने कब जगह बना ली पता ही नहीं चला. दरअसल, शख्सीयत ही ऐसी रही. मर्यादा में रहकर कैसे सवाल पूछे जाते हैं. किसी को बिना बेइज़्ज़त किए और खुद पर किसी को हावी न होने देने के हुनर ने हम जैसे लोगों का अज़ीज़ बना दिया।

जाहिर है कि निधन से पूरा जिला स्तब्ध रहा गया. सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलियों का सिलसिला चल पड़ा. आम लोगों की छोड़िए, जिले का हर महत्वपूर्ण व्यक्ति मर्माहत है और शोक संवेदना प्रकट कर रहा है. लेकिन रामचन्द्र नायडू के निधन और इन्हीं शोक संवेदनाओं के बीच से एक प्रश्न भी उठता है जिस पर गौर करने की जरूरत हर उस खास व्यक्ति को है जो आज एक युवा और काबिल पत्रकार के निधन पर शोक में डूबे हुए हैं।

रामचंद्र जी ने जिले से जुड़े हर महत्वपूर्ण सवाल पर सवाल किया और उन्हीं  के कोरोना से निधन के बाद एक सवाल मैं उठा रहा हूं. सवाल ये कि कोरोना महामारी के इस भयानक दौर में रामचन्द्र के साथ ही साथ हमने कई युवा, अनुभवी और वरिष्ठ पत्रकारों को खोया है. ऐसे तमाम पत्रकारों के कोरोना की वजह से कालकलवित हो जाने की न तो चर्चा हुई और न ही किसी जनप्रतिनिधि की शोक संवेदना।

प्रश्न ये है कि फ्रंटलाइन पर अपने जान को जोखिम में डालकर देश को जागरुक करने वाला पत्रकार, सरकार से लेकर सिस्टम तक हाशिए पर क्यों है? आखिर क्या वजह है कि हर महत्वपूर्ण सरकारी कदम और फैसले का प्रसार जनता तक करने वाल पत्रकार व्यवस्था की नजरों में गौण है? 

*पं अजय मिश्र की कलम से*

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