फटी जींस....आत्मनिर्भरता की ओर बढते कदम, फटते संस्कारों के बीच अभिव्यक्ति की स्वच्छंदता- मनोज द्विवेदी
( मनोज कुमार द्विवेदी-- अनूपपुर, मप्र )
*क्या फटी जींस और फटे कपडों का सभ्य , संपन्न , फैशन परस्त समाज द्वारा प्रयोग भारत जैसे देश की अर्थ व्यवस्था के अनुकूल कार्य है ? क्या यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत के सपनों को साकार करने में सहयोग कर सकता है ? यदि कोई मुझसे पूछे तो मेरा उत्तर तो हां में होगा । मैं तो उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री जी के उस वक्तव्य से भी बहुत नाराज हूँ ,जिसमें उन्होंने किसी समाजसेवी बहनजी की फटी जींस पर टिप्पणी की थी। उनकी इस टिप्पणी पर देश की कुछ अभिव्यक्ति की आजादी पसंद बहनों ने उन्हे बेशर्म , निम्नसंस्कारित, कुंठित मानसिकता वाला पुरुष कह दिया तो इस पर कोई विवाद थोडे ना खडा हो गया। एक राज्य की महिला मुख्यमंत्री जब देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को खुले आम गुण्डा कह सकती है तो क्या फर्क पडता है कि उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री को ऐसी ही कुछ महिलाओं ने बेशर्म कह दिया *
मनुष्यों के पूर्वज आनुवांशिक रुप से बंदर थे या नहीं , यह आज बहस का विषय ना भी हो तो इतना तो तय है कि दूसरों की अंधी नकल करने में कुछ लोगों ने बंदरों को भी पीछे छोड़ रखा है। काल, प्रांत, देश , संस्कृति और आवश्यकता पर चिंतन किये बिना ...मन को अच्छा लगने वाली हर उस वस्तु / विचार / संस्कृति को लोग अपना लेना चाहते हैं, जो व्यक्ति/ समाज / देश के अनुरुप हो या ना हो...खुद को अच्छा लगना चाहिए और लोगों का ध्यानाकर्षण करता रहे। लोगों का ध्यान स्वयं की ओर किसी भी तरीके से खींचना यदि अभिव्यक्ति का पैमाना हो सकता है तो यह नि: संदेह कहा जा सकता है कि कुछ लोग इसके लिये अपनी जान तक दांव पर लगाने को तैयार दिखते हैं...संस्कार....संस्कृति....लज्जा की तो बात ही मत कीजिये । अपनी अड़ी में देश - काल को ठेंगे पर लेने वालों का भाव तो कुछ ऐसा रहता है कि मानों उनके उलट विचार रखने वाले से बड़ा दुश्मन , समाज द्रोही कोई है ही नहीं ।
कोई क्या पढे - क्या ना पढे , क्या देखे - क्या ना देखे , क्या पहने - क्या ना पहने , क्या खाए - क्या ना खाए , कैसा व्यवहार करे - कैसा व्यवहार ना करे ....यह किसी व्यक्ति का नितान्त व्यक्तिगत विषय हो सकता है। उसे पूरा अधिकार है कि वह अपने हितों के अनुरुप अपना जीवन स्वतंत्रता पूर्वक जिये। लेकिन स्वतंत्रता का यह अधिकार उसे तभी तक प्राप्त है , जब तक कि उसकी स्वतंत्रता , स्वछंदता में बदल कर दूसरों का जीवन प्रभावित ना कर रहा हो। जब हमारा आचरण व्यक्ति या समाज के बड़े हिस्से की परेशानी का कारण बनने लगे तो कोई टोके या ना टोके , हमें स्वयं अपनी समीक्षा जरुर करनी चाहिए ।
भारत विविधताओं का देश है। यहाँ अलग - अलग प्रांतों की भाषा, संस्कृति, खान - पान, पहनावा सदियों से आकर्षण का केन्द्र रहा है। इस पर कभी कोई विवाद रहा नहीं है। विदेशी संस्कृति की अच्छाईयों को भी देश ने सरलता से आत्मसात किया है। विदेशी संस्कृति को आत्मसात करने की यह सरलता विरले ही देशों में देखने को मिलती होगी। इसके बावजूद इसके गुण दोषों का परीक्षण किये बिना जब यह अंधानुकरण में बदलने लगा तो समाज के एक बड़े वर्ग ने इस पर अपनी आपत्ति दर्ज की, अपने विचार रखे। ध्यान रहे कि लोगों ने महज अपने विचार रखे...कोई कानून नहीं बनाया गया, ना ही सख्ती की गयी। इसके बावजूद कुछ लोगों द्वारा इसके विरुद्ध तीखी प्रतिक्रिया दी गयी ।
समय के अनुरुप भारत में तेजी से शहरीकरण हुआ है। उसी अनुपात में लोगों के विचारों में अधिक खुलापन आया है , कुरीतियों को नकारने की झिझक समाप्त हुई है। पहनावे की स्वतंत्रता कोई आज का विषय नहीं है। कोई क्या पहने, कैसा पहने ...यह व्यक्ति विशेष का मामला है। लेकिन किस अवसर पर... कहां...देश - समय - संस्कृति के अनुरुप वस्त्रों का चयन ना हो तो लोग चर्चा तो करेंगे ही। यह व्यक्ति की इच्छा है कि उसके कपडों का चयन क्या हो । यह समाज को , कानून को ध्यान रखना है कि व्यक्ति की यह स्वतंत्रता बनी रहे। लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि स्वतंत्रता और स्वछंदता का बारीक अंतर व्यक्ति और समाज के लिये विवादों का कारण बन सकता है। इस विवाद या इस समस्या को वैचारिक संकीर्णता का नाम देकर खारिज नहीं किया जा सकता।
किसी गरीब , बेबस व्यक्ति के लिये यदि फटे कपड़े मजबूरी, बेबसी, निर्धनता का परिचायक है तो इस पर उसे ना तो गर्व होगा , ना ही वह इसे सरलता से स्वीकार करना चाहेगा। पाश्चात्य समाज के संपन्न तबके के लिये फटे कपड़े पहनना फैशन या आधुनिकता हो सकती है...भारत जैसे सदियों गुलाम रहे देश के कुछ लोगों के लिये यह स्टेटस सिंबल हो सकता है , सभी के लिये नहीं । यदि कुछ महिलाओं या पुरुषों के लिये सार्वजनिक स्थानों पर फटे कपड़े पहनना उनकी आज़ादी , उनके अधिकार , उनके संस्कारों का मामला है तो इसे अस्वीकार करने वालों को आप कुंठित, असंस्कारित, बेशर्म , पुरुषवादी , कूप मंडूक कह कर खारिज नहीं कर सकते। इस पर बहस हो सकती है कि घर, मन्दिर, विद्यालय, बाजार , कार्यालय, महानगर/ नगर/ कस्बों / गांव में बिना भेद किये क्या हम एक जैसा पहनावा रख सकते हैं ?
गांव का गरीब से गरीब व्यक्ति अपने परिवार को फटे कपड़े पहना कर सार्वजनिक नहीं करना चाहेगा ।
जब अधिकारों की बात आती है तो लोग अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे बड़े देशों की दुहाई देते हैं। लेकिन वहीं जब नियम - कायदों को मानने , कर्तव्यों के निर्वहन की अपेक्षा की जाती है तो लोग उच्छश्रंखल होते दिखते हैं।
प्रत्येक माता - पिता अपने परिवार की सुरक्षा, मान - सम्मान के लिये चिंतित रहते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि वो अपने बच्चों को बाहर पढने नहीं भेजते, जाब के लिये बडे शहरों में अकेला नहीं छोड़ते । अब यह लडके या लड़कियों को ध्यान रखना है कि पहनावे, आचार - विचार की स्वतंत्रता के बीच स्वच्छंदता पर भी नियंत्रण रहे। मेरी बेटी या मेरा बेटा घर , बाजार, कालेज, आफिस में अपने पहनावे को लेकर पर्याप्त स्वतंत्र है...लेकिन उसे उतना ही जिम्मेदार भी होना होगा। अपराध नियंत्रण के लिये पर्याप्त मजबूत सिस्टम है...लेकिन उसका सहयोगी हमें भी बनना होगा। कोई अपने घर पर क्या और कैसे कपड़े पहनता है , कैसा आचरण करता है ...यह उसका व्यक्ति गत विषय है। लेकिन जैसे ही वो सार्वजनिक स्थान पर आता है तो उसे अन्य लोगों की भावनाओं, उनकी स्वतंत्रता , उनके अधिकारों का सम्मान करना चाहिये । यह ध्यान रहे कि स्वतंत्रता, अधिकार तथा कर्तव्यभाव सभी के लिये समान है। कोई अपनी पसंद , ना पसंद किसी पर थोप नहीं सकता।
वैसे जिस तरह से अभिजात्य समाज के पढे लिखे नव धनाढ्य तबके में फटे कपडों की पसंद और स्वीकार्यता बढी है , मेरा सुझाव तो यही है कि लोग अपने फटे कपडों को यहाँ - वहाँ फेकनें की जगह इसे पसंद करने वाले फैशन परस्तों को दे देना चाहिए। किसी गरीब को कोई फटे कपड़े ना तो कोई देना चाहेगा , ना ही कोई गरीब इसे पहनना चाहेगा। फटे कपडों का फैशन भारत जैसे गरीब देश के लिये वरदान साबित हो सकता है। नये कपडों , जींस आदि को घिस - फाडकर पहनने की जगह लोग इसे फैशन परस्त अमीर लोगों में बांट दें। आपके दिये फटे कपडे पहनने पर ना आपको बुरा लगेगा , ना ही पहनने वालों को । वो भी खुश , हम भी खुश। एक दूसरे को कोसने से अच्छा खुशमखुश भारत का निर्माण करना ही बेहतर होगा।